
नोटबंदी के छह साल पूरे हो गए हैं. एक तरफ इस पर राजनीति हो रही है, तो दूसरी तरफ वह जमात है जो अब कैश नहीं गिनती बल्कि मोबाइल से सेकंडों में पेमेंट करती है. पहले कहां रुपये लेकर चलने में झिझक होती थी, आज लाखों रुपये मोबाइल वॉलेट में यूं ही पड़े रहते हैं.
8 नवंबर 2016 से अब तक काफी कुछ बदल गया है. खासकर लेनदेन के मामले में. 2016 की नोटबंदी ने क्या आम और क्या खास, सबको प्रभावित किया है. इस घटना का वर्णन दिल्ली के करावल नगर निवासी रामलाल एक अलग ही अंदाज में बयां करते हैं. वे बताते हैं कि पहले जेब में कोई व्यक्ति लाख-दो लाख रुपये लेकर चलने में सोचता था. लेकिन आज लाखों रुपये पेटीएम और गूगल पे से खर्च हो जाते हैं और किसी को भनक तक नहीं लगती. रामलाल की मानें तो डिजिटल लेनदेन ने सुरक्षा के साथ-साथ सुविधा भी बढ़ाई है. हालांकि उन्हें एक बात का मलाल जरूर है. वे कहते हैं कि पहले जेब में नोट रखने और उसे खर्च करने में हमें दो-चार बार सोचना पड़ता था. मगर जब से मोबाइल वॉलेट और यूपीआई आया है, तब से दो के चार रुपये कब खर्च हो गए, पता ही नहीं चलता.
लेकिन नोटबंदी ने तो पूरी जमात को लाइन में लगा दी, इसके बारे में क्या? इस पर रामलाल जवाब देते हैं, कोई भी बड़ा बदलाव परीक्षा मांगता है और नोटबंदी भी इससे अछूती नहीं रही. रामलाल बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन उन्हें दुनियादारी और व्यावहारिक ज्ञान की पूरी समझ है. वे इसी हिसाब से नोटबंदी को भी बयां करते हैं. रामलाल कहते हैं, शुरू में नोटबंदी को लोग इसलिए नहीं पचा पाए क्योंकि उन्हें भरोसा ही नहीं था कि सरकार उनके बड़े नोटों को मांग रही है और दोबारा उसे लेने के लिए लाइनों में खड़ा करा रही है. यह प्रक्रिया बेहद कठिन थी, लेकिन कठिनाई का दौर चला गया.
कैश नहीं, क्यूआर कोड ही प्रधान है
नेताओं और कालाधन का धंधा करने वालों को छोड़ दें, तो आज हर आदमी नोटबंदी के उस कष्ट को भूल गया है. उसे नोटबंदी याद नहीं बल्कि अब वह पेटीएम और गूगल पे, फोन पे को याद रखता है. नोटबंदी के दौरान एटीएम की लाइनों में लगा आदमी दुकान के लाला को कैश नहीं गिनता बल्कि उसका क्यूआर कोड स्कैन करता है. लाला अब छुट्टे पैसे नहीं होने के नाम पर 99 के बदले 100 रुपये नहीं लेता क्योंकि देने का पूरा अधिकार आज ग्राहक के हाथ में है. अगर सामान का दाम 99.50 रुपये है, तो पेटीएम से उतने ही पैसे दिए जाते हैं. रामलाल इस घटना को बहुत बड़े बचत से जोड़ कर देखते हैं.
डिजिटल ट्रांजैक्शन ने बचत सिखाया
रामलाल बताते हैं कि इंसान हर दिन खुले या छुट्टे पैसे की परेशानी से जूझता है. दुकान पर, बस में, ऑटो में, सब्जी वाले के यहां, मोची-नाई के यहां. इन जगहों पर छुट्टे के नाम पर पता नहीं कितने रुपये यूं ही चले जाते हैं. लेकिन डिजिटल ट्रांजैक्शन ने इस पूरे हालात को बदल कर रख दिया है. रामलाल कहते हैं, क्या कभी बिजली दफ्तर में बिजली बिल जमा करने पर कंपनी ने आपको 50-100 रुपये का कैशबैक दिया है? नहीं. लेकिन डिजिटल ट्रांजैक्शन आपको यह फायदा देता है.
क्या कैश से किराना का सामान खरीदने पर आपको रिवॉर्ड पॉइंट्स मिलते थे? नहीं, लेकिन आज आपको ऐसे पॉइंट्स मिलते हैं जो रुपये की तरह दिखते नहीं, लेकिन काम रुपये वाला ही करते हैं. रामलाल दूसरा बड़ा उदाहरण करंसी की सुरक्षा का देते हैं. वे कहते हैं, क्या कभी आप जेब में 10 लाख रुपये लेकर चलते थे, वह भी मेट्रो में या ऑटो-बस में? जवाब नहीं है. लेकिन आज आपको मोबाइल वॉलेट में लाखों रुपये होते हैं और आराम से मेट्रो-बस में सफर करते हैं. नोटबंदी ने इस स्तर पर जाकर लोगों को फायदा दिया है.
नोटबंदी से क्या कुछ बदला
रामलाल की बातों पर गौर करें तो पता चलेगा कि नोटबंदी ने एक तरह नोटों के दरवाजे बंद किए तो दूसरी ओर कई डिजिटल ट्रांजैक्शन कंपनियों के दरवाजे खोल दिए. भला लोग पहले पेटीएम, गूगल पे, फोन पे, अमेजॉन पे, व्हाट्सऐप पेमेंट, रेजरपे आदि का नाम कहां जानते थे. लेकिन आज गांव में भी आपको इन देशी-विदेशी कंपनियों के नाम सुनने को मिल जाएंगे. ये कंपनियां करोड़ों रुपये का ट्रांजैक्शन करती हैं जिससे लोगों की सुविधाएं तो बढ़ी ही हैं, इन कंपनियों को धंधा भी चोखा हुआ है.
अंत में रामलाल एक गहरा सवाल छोड़ जाते हैं. वे सरकार से पूछते हैं, क्या नोटबंदी के बिना डिजिटल ट्रांजैक्शन को शुरू नहीं किया जा सकता था? क्या अच्छा नहीं होता कि एक गरीब को अपने फटे-पुराने नोट बैंकों में जमा कराने के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता. उसके प्यारे नोट भी उसके पास रहते और उसके बेसिक फोन से डिजिटल ट्रांजैक्शन भी होता. रामलाल के ये सवाल गहने मायने रखते हैं।